औरत एक घड़ा
भारतीय समाज की संरचना में औरतों(औरतों की जात नहीं होती) के स्थान को इस प्रकार समझा जा सकता है कि आपके घर में पाँच घड़ें हैं, एक के ऊपर एक को व्यवस्थित किया गया है। सबसे निचले वाले घड़े का नाम औरत है। बाक़ी उसके ऊपर शुद्र, वैश्य, क्षत्रिय व ब्राह्मण नामक घड़े क्रमशः रखे गए हैं। हर घड़े की पेंदी में एक बहुत सूक्ष्म छिद्र है। सबसे ऊपर रखे घड़े का मुख खुला है जिससे कि अलग-अलग मौसम का अन्न-जल, धूप-बारिश, आँधी-तूफान, ज्ञान-विज्ञान सबकुछ उसे सीधे मिल जाता है मतलब ऊपर रखे घड़े को प्रकृति के सारे अनुभव मिल रहे हैं जिससे अपनी चेतना से वो अपने लिए अच्छे-बुरे का निर्धारण करता है। पहले घड़े की पेंदी से टपककर चीज़े दूसरे घड़े में जाती है फिर तीसरे, फिर चौथे, और अंत में पांचवें में। चुकी घड़ों की पेंदीयों के छिद्र बहुत सूक्ष्म थे, पहले वाले से होकर पाँचवे तक क्या, कितना कुछ पहुंचा होगा विचारणीय है। पाँचवें घड़े के ऊपर चार औऱ घड़े थे इसलिए पाँचवे घड़े के चार मालिक थे। चौथे के तीन, तीसरे के दो, दूसरे का एक और पहले का कोई नहीं।इसलिए उसका मालिक अदृश्य अज्ञात अद्वितीय 'भगवान' को बनाया गया। अच्छा! एक बात और यह है कि जब सबसे पहले घड़े का जिसका की मुँह खुला था और वो उस मुँह में सबकुछ भरा है फिर भी उसका मालिक किसी को बनाया गया है तो जब सबसे ऊपर वाले के वो मालिक हो सकते हैं तो दूसरा,तीसरा,चौथा, पांचवां के मालिक नहीं होंगे? इसलिए सबका मालिक एक नहीं है। पांचवां के पाँच मालिक, चौथा के चार, तीसरा के तीन मालिक, दूसरा के दो मालिक और पहला का मालिक एक है। इसलिए औरत नाम के घड़े का मालिक शुद्र,वैश्य,क्षत्रिय,ब्राह्मण व भगवान सब को बनाया गया।
ऊपर वाले घड़े का मालिक बड़ा आलसी था गायब रहता था, इसी बात का फायदा उठाते हुए पहले घड़े ने स्वयं को सबसे बड़े मालिक (यानी भगवान मालिक) का दोस्त, शिष्य, क़रीबी बताकर वैधानिक रूप से ख़ुद को उत्तराधिकारी मालिक बताया। इस प्रकार बाक़ी घड़ों का हो गया वो मालिक! बाक़ी घड़ों तक क्या पहुँचेगा, कितना पहुँचेगा यह अब मालिक तय करने लगे। स्वयं लगे कानून लिखने, सबके अधिकार कर्तव्य लिखे गए लेकिन उसको पढ़ने की इजाज़त नहीं दी गयी। भगवान मालिक का आदेश बताकर सबसे उत्तराधिकारी मालिक के बात/कानून/अध्यादेश मनवाए गए। सबसे अधिक ज़्यादती औरत घड़े के साथ हुआ क्योंकि उससे पाँच मालिक की बात मनवायी गयी। उसको उसके कर्तव्य बताए गए, पाप-पुण्य सिखाया गया, देवी-देवता की पहचान कराई गयी, डायन-चुड़ैल का ज्ञान कराया गया, टोना-टोटका बताया गया लेकिन ग्रंथ नहीं दिए गए। कानून वाली किताब नहीं दी गयी और अधिकार नहीं बताए गए।
औरत घड़े के गुण बांटे गए उसे घूँघट दिया गया,नजरें नीचे रखने और धीमा बोलने की हिदायत दी गयी उसको कहा गया कि तुम बहुत महान हो, देवी हो, अपने पिता-पति-पुत्र की लाज हो, अमानत हो, तुम करुणा से भरी हो और पुत्र जनने पर दूधो नहायी जाओगी तुम्हारा कोख़ शुद्ध होगा। औरत घड़े को जन्म से संरक्षण में रहने की हिदायत दी गयी 8 वर्ष तक पिता के संरक्षण में, फिर पति के फिर बेटे के। औरत घड़े ने 200 सालों तक इस रीति,परम्परा को निभाया और आज भी निभा रही है। पाँच-पाँच मालिकों से घिरी यह घड़ा बिल्कुल धरा सी है, चुपचाप सारा भार संभाली है और हर दिन इसके बदन के साथ ज्यादतियाँ बढ़ती ही जा रही है। जिस प्रकार धरती को माँ बताकर रोज उसमें पाइप ठुसे जा रहे, कचड़ों से ढका जा रहा है, उसपर उगे जंगल काटे जा रहे बिना उसकी इजाजत के; ठीक वैसे ही औरत के जीवन से उसकी देह से गर्भ की बेटी काट दी जाती है। औरत होने के कारण हर दूसरे मिनट उसका बलात्कार होता है और समाज के दिमाग़ का सारा कचड़ा उड़ेला जाता है एक औरत पर।
औरत जब स्वयं से किसी पुरुष से प्रेम करे तो वह प्रेम भी अश्लील माना जाएगा क्योंकि प्रेम करने का अधिकार भी स्त्रियों को तब है, जब प्रेम(पति) उसके पिता,भाई,चाचा,मामा,मौसा आदि द्वारा चुना गया हो।
हमारे समाज ने स्त्रियों के विकास के तमाम दरवाज़े बंद कर रखे हैं और समय-समय पर एक पल्ला धीरे से खोलकर उसमें से अपनी आवश्यकता अनुसार दो-चार औरतों को निकालकर महिला शशक्तिकरण का ढोंग रचा जाता है। मैं कहती हूँ कि क्यों भारत जैसे देश में स्त्रियों को शशक्त करने की आवश्यकता है? गौरवशाली इतिहास उठाकर देखिये हड़प्पन सभ्यता में समाज मातृसत्तात्मक हुआ करता था। पुरुष लिंग के साथ स्त्री योनियों की भी पूजा होती थी। आज के आधुनिक ढाँचे को हड़प्पन उस जमाने में जिया करते थे और बड़ाबड़ी के साथ जिया करते थे। कहाँ महिलाएँ कमज़ोर रहीं हैं कि आप उसे मजबूत बनाइयेगा? खेतों में गेंहूँ बोने और काटने वाली औरत, भट्टे पर ईंट पारने-पकाने, ढोने वाली औरत, दही की हांडी सिर पर लिए गाँव भर में घूमने वाली औरत, बड़े घरों में दिन-दिन भर खटने वाली औरत कमज़ोर नहीं होती साहब! औरतों के ख़िलाफ़ जो षड्यंत्र रचा गया है वो कमज़ोर और विकृतियों से भरे मानस पटल की उपज है, जो स्त्रियों के विकास के अवसर कम करती है। आज भी गाँवों से जो अन्न आता है वो बिना अन्नपूर्णा(औरत) के लगे नहीं आता, चिलचिलाती धूप में औरतें भी खेतों में पसीना बहाती हैं, और इतना श्रम देने वाली औरत को आप कितना शशक्त करने की सोंच रहे? शशक्तिकरण करिये उन तमाम मष्तिष्क का जो स्त्रियों के मार्ग में रूढ़ियाँ और पितृसाहि लेकर खड़े हैं।
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